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स्नेह पाक

1. तुल्यक्लकेन इव नियार्से मध्यो दर्वी विमुञ्चति'' 

                कल्क पाककर निर्यास जैसा हो जाए व जलीयाशं समाप्त हो जाय तो उसे मृदुस्नेहपाक कहते हैं।

2. ''संयाव इव निर्यासे मध्यो दर्वी विमुञ्चति।''

                औषधं कल्क पककर संयाव जैसा गाढा हो जाए जलीयाशं समाप्त हो जाए व कक की वर्ति बनने लग जाए तथा दर्वी में चिपकता नहीं हो तो उसे मध्यस्नेहपाक कहते हैं।

3. ''शीर्यमाणे तु निर्यासे वर्तमाने खरस्तथा''

                औषध कल्क पककर हाथ से वर्ति बनाने पर वर्त्ति बन आए तथा पुनः टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने लगे तथा स्नेह में दग्ध पाक जैसा गन्ध आने लगे उसे खरस्नेऽपाक कहते हैं।

आ० चरक द्वारा- मृदु पाक – नस्य कर्म उपयोग हेतु

                मध्य पाक – पान कर्म व बस्ति

                 खरपाक – अभ्यङ्ग

    सुश्रुत -  मृदु पाक – पानार्थ

                मध्य पाक – नस्य कर्म

                खरपाक – बस्ति कर्म

शार्ङ्गधर – मृदुपाक – नस्य कर्म

                मध्य पाक- सर्वाङ्ग

                खरपाक- अभ्यङ्ग